आज साधक गण तुरीयावस्था (चतुर्थ) से तुरीयातीत (पञ्चम) अवस्था के बीच अटकने, भटकने को विवश हैं, कारण है यथार्थ पथप्रदर्शक, गुरु वा अनुभव-आधारित लेखन-प्रकाशन का सहज उपलब्ध न होना । अत: शापोद्धार क्रम में, बगला के 'श्री' मंत्र से संपुटित (अष्ट-लक्ष्मी सिद्धि), 'बीज-त्रयात्मक सप्तशती' सहित, नवाङ्ग (अर्गला, कीलक, कवच, रात्रिसूक्त - बगलासप्तशती पाठ - रहस्यत्रय, काली सिद्ध कुञ्जिका, नवार्ण - बगला मंत्रयोग) से सुसज्जित - यह लेखन मेरे २५ वर्षों के आन्वेषिक एवं अनुभवजन्य प्रयोगों का सारगर्भित संकलन है । "ज्ञान खण्ड" के 'इच्छति-जानति-यतते' में मैंने जहां तन्त्राचार के सैद्धान्तिक विचारान्दोलन का वस्तुपरक विश्लेषण किया, वहीं अन्तर्याग में मूलांश, क्रव्यांश तथा उत्प्रेरक की क्षतिपूर्ति क्रमशः "बीजात्मक सप्तशती" (मूलाधार) को मूल पाठ में, "गर्भ चण्डी" (अनाहत) एवं "लघु सप्तशती" (आज्ञा चक्र) का संयोजन "अधिकस्य अधिकं फलम्" खण्ड में करके "ज्ञान-योग", "कुण्डलिनी-योग", तथा "मंत्र-योग" तीनों का संधान किया है । पुस्तक सर्वसुलभ, सरल (पद-विच्छेद), साप्ताहिक (दैनन्दिन २ अध्याय), आगमोक्त प्रयोगों का सत्यार्थ प्रकाशन है, जो सकाम साधकों के लिए 'चण्डी - कल्पतरु' तथा संग्रहणीय है ।